Gustakhi Maaf: रामलला की प्राणप्रतिष्ठा और शंकराचार्य

Gustakhi Maaf: रामलला की प्राणप्रतिष्ठा और शंकराचार्य

-दीपक रंजन दास
अयोध्या में नवनिर्मित श्रीराम मंदिर में मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा का देश बेसब्री से इंतजार कर रहा है. इसके बाद देश-विदेश से श्रद्धालु इसके दर्शन के लिए पहुंचेंगे. रेलवे ने इसके लिए खास इंतजाम किये हैं. कुछ राज्य सरकारें मुफ्त में दर्शन कराने की योजना भी बना रही हैं. छत्तीसगढ़ से इस मंदिर का खास कनेक्शन भी है. प्रभुश्रीराम छत्तीसगढ़ के भांजे हैं. मंदिर खूब मजबूत बने, इसके लिए भिलाई इस्पात संयंत्र ने भूकंपरोधी टीएमटी बार उपलब्ध कराया है. धान का कटोरा छत्तीसगढ़ भोग के लिए सुगंधित चावल उपलब्ध करा रहा है. इस बीच जगन्नाथपुरी पीठ के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने अपनी नाराजगी जाहिर की है. उन्होंने कहा है कि उनके भी पद की गरिमा है. प्रधानमंत्री प्राण प्रतिष्ठा करेंगे और शंकराचार्य खड़े-खड़े ताली बजाएंगे, ऐसा वो नहीं कर पाएंगे. इसलिए वो अयोध्या नहीं जाएंगे. उन्होंने अपूर्ण मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा को भी गलत बताया है. उन्होंने इस बात पर भी सवाल खड़े किये हैं कि सरकार अयोध्या, मथुरा और काशी में विशाल मस्जिद बनवाने जा रही है. उन्होंने आशंका जताई कि इससे देश में तीन पाकिस्तान और बन जाएंगे. पर सवाल यह उठता है कि क्या लोग उनकी सुनेंगे? लोगों को क्यों उनकी सुनना चाहिए? क्या शंकराचार्य हिन्दू समाज के आध्यात्मिक गुरू रह गए हैं? पिछले कुछ सालों में इतने धर्म विशेषज्ञ-मर्मज्ञ पैदा हो गए हैं कि धर्म खुद कन्फ्यूज हो गया है. इन धर्माचार्यों के लाखों फालोअर्स हैं. कुछ धर्माचार्य तो जेलों में हैं पर उनके अनुयायियों की संख्या या आस्था में कोई कमी नहीं आई है. वे गैंगस्टर्स की तरह जेलों से ही अपने साम्राज्य का संचालन कर रहे हैं. दरअसल, शंकराचार्यों ने थाली में परोसकर हिन्दुओं की अगुवाई राजनेताओं को सौंप दी. लोकतंत्र में यह राजनेताओं की मजबूरी है कि वो धर्म का इस्तेमाल भी जनता के ध्रुवीकरण के उपकरण की तरह करे. राजनीति इसमें सफल रही है. इसलिए अब तक किनारे बैठकर ताली बजा रहे धर्माचार्यों के लिए राजनीति ने यही भूमिका तय कर दी है. महाभारतकाल इसका सबसे बड़ा गवाह और उदाहरण है. सही-गलत का ज्ञान होने के बावजूद आचार्यों और महारथियों को युवराज दुर्योधन की जिद पूरी करने के लिए सिंहासन का साथ देना पड़ा. भगवान श्रीकृष्ण धर्म की रक्षा के लिए सिंहासन के खिलाफ चले गए और एक विशाल साम्राज्य धराशायी हो गया. अब यह शंकराचार्यों को ही तय करना है कि वे सिंहासन का साथ दें या उसके खिलाफ जाएं. सिंहासन के खिलाफ जाने के लिए श्रीकृष्ण का साहस और आत्मविश्वास चाहिए. क्या है ऐसा साहस? वैसे भी हिन्दू समाज का नेतृत्व पीठों में बिखरा हुआ है. पहले तो वो एक हो जाएं. स्वयं को समेटें और एक शक्ति के रूप में सामने आएं. यदि ऐसा करना संभव हुआ तभी वे हिन्दुत्व का वास्तविक नेतृत्व कर रहे होंगे. अन्यथा, वो अपनी उसी छद्म भूमिका में खुश रहने की आदत डाल लें जो राजनीति ने उनके लिए तय कर दी है.


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