Gustakhi Maaf: मां को निर्मोही कहने की गुस्ताखी क्यों?

Gustakhi Maaf: मां को निर्मोही कहने की गुस्ताखी क्यों?

-दीपक रंजन दास
जब भी कहीं कोई नवजात शिशु लावारिस मिलता है, उंगलियां उस अज्ञात मां की तरफ उठ जाती है जिसने अपने कलेजे के टुकड़े को खुद से जुदा किया होता है. उसने यह निर्णय किस मजबूरी के तहत लिया होगा, इसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता. इस निर्णय के बाद खुद उसके दिलो-दिमाग में किस तरह की उथल-पुथल मचती है, इसकी भी कोई परवाह समाज नहीं करता. इस घटना का, स्वयं उसके शेष जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ता है, समाज के पास यह सोचने की भी फुर्सत नहीं. उसे तो बस एक मौका चाहिए उंगली उठाने का. इस कार्य में उसे महारत हासिल है. चुटकियों में वह मजबूर मां को कलंकिनी, निर्मोही, कलमुही घोषित कर देता है. सभी जानते हैं कि संतान की उत्पत्ति स्त्री और पुरुष के मिलन से होती है. फिर दोषी अकेली मां क्यों? क्या सिर्फ इसलिए कि प्रकृति ने मातृत्व की जिम्मेदारी उसे सौंपी है? उन पुरुषों का क्या जो सांड बनकर समाज में घूम रहे हैं? उस समाज का क्या जिसने व्यभिचार को मौन स्वीकृति दे रखी है? लोग प्यार एक से कर रहे हैं, संबंध दूसरी से बना रहे हैं और विवाह तीसरी से कर रहे हैं. मामला खुलने के बाद भी बेहिस समाज धोखा खाई हुई प्रेमिका को ही कुलटा ठहरा देता है. समाज के ठेकेदारों को भले ही यह विसंगति दिखाई न दे पर कानून बनाने वालों और स्वस्थ मानसिकता के लोगों ने इस विडम्बना को समझा और उसका हल निकालने की कोशिश की. बिन ब्याही मां के लिए अपने बच्चे के साथ अकेले जीवन काटना बेहद मुश्किल हो जाता है. बच्चे को उससे अलग कर उसे एक और मौका देने की कोशिश तो की ही जा सकती है. इसके लिए सरकार ने कई प्रावधान किये हैं. पालना घर और मातृछाया जैसे संस्थान इसी उद्देश्य के लिए खोले गए हैं ताकि ऐसी मजबूर मां नवजात को कूड़े पर फेंकने के लिए विवश न हो. इसके लिए अस्पतालों के एक कोने में झूले लगवाए गए हैं. नवजात शिशु को इन झूलों में डाला जा सकता है. इसमें सेंसर लगे होते हैं जो शिशु के आगमन की सूचना अस्पताल के मातृत्व एवं शिशु विभाग को तत्काल दे देते हैं. ऐसी ही व्यवस्था मातृछाया में भी है जहां गेट पर ही पालना लगा होता है. शिशु को इसमें डालकर मां या उसके परिजन घंटी बजाकर चुपचाप निकल सकते हैं. इससे निर्दोष शिशु को अकालमृत्यु से बचाया जा सकता है. मां को भी इस बात का संतोष रहता है कि उसने शिशु के जीवित रहने और उसकी देखभाल की कोई तो व्यवस्था कर दी. इन पालना घरों और मातृछाया से शिशुओं को उन दंपतियों को गोद दिया जाता है जो संतान के लिए तरस रहे हैं. पर नवजात को बचाना हमेशा संभव नहीं होता. एक ऐसा ही मामला कोरबा में सामने आया जिसमें शिशु की मौत हो गई. समाज फिर ‘कलंकिनी’ को ढूंढ रहा है.


Related Articles